मेरी बेबाकी कहाँ गुम है?
समय गुजरा लेकिन मै नहीं
मुझे लगता ही नहीं कि मुझमे बदलाव है
मेरा मन तो अभी भी वहीँ छोटा सा बालकपन महसूस करता है
क्या सभी ऐसा ही महसूस करते है या केवल मैं
मैं अच्छा हूँ या बूरा पता नहीं
क्या सभी ऐसा ही नहीं सोचते है क्या
यदि हिम्मत करके खुद में झांक ही लूं
तो मैं शायद अच्छा तो नहीं ही हूँ
क्या सच में सब ऐसे है या मैं ही केवल बूरा हूँ
लोगों का दावा है कि उनका जीवन खुली किताब है
जो जहाँ जैसे चाहे झांक लें और जान लें, कोई रोक नहीं.
शायद वो महामानव सच में ऐसा कहलाने योग्य है क्योंकि,
मै तो यह चाहता हूँ की मेरा सच आइना भी न जाने.
बीते पल की कुछ यादें ऐसे परेशां करती है मुझे
मेरी सुगढ़ सामाजिक छवि एक तमाचा सा लगती है
फिर मै सोच के उस गहरे दलदल में फंस सा जाता हूँ
जहाँ से किसी तरह वापस ज़िन्दा लौट पाता हूँ.
क्या केवल मैं ही वह मुर्ख हूँ, जिसे सोच में सैकड़ो बार मरना पड़ता है
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