बड़े भैया का खौफ चलता था. हमने रामगढ़ के गब्बर डाकू को तो नहीं देखा था, लेकिन बड़े भैया का खौफ हम भाई बहनों के जेहन में रामगढ़ के गाँव के लोगों के मन में बसे गब्बर डाकू के खौफ से ज्यादा था|
रोज सब लोग पांच बजे शाम के नौ बजे तक किताब लेकर एक गोल बनाकर बैठ जाते थे. चाहे किसी को कितनी भी नींद सताए लेकिन भैया के आने से पहले कोई पढाई से उठ नहीं सकता था. लगभग नौ बजे भैया ड्यूटी से आते फिर सबके द्वारा किये गए अध्ययन कार्य का ब्यौरा लेकर संतुष्ट होते, तभी कोई सो सकता था. प्रतिदिन का यही क्रम था.
इस दरम्यान यदि बड़े भैया को यह भनक लग जाती कि कोई उन्हें छलने का प्रयास कर रहा है तो उसकी पिटाई होनी तय होती थी. फिर मार खाकर उसे अपनी जुर्म स्वीकार करनी ही होती थी. चाहे उसने पढाई में छल किया हो या नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. इसीलिए सभी अपना कार्य ईमानदारी से करते और छलने की बात दूर-दूर तक मन के किसी कोने में नहीं आती थी.
सात साल का मैं सबसे छोटा होने के कारण शरारती और मतलबी जैसी अल्हड आदतों से ग्रस्त था. मैं ठीक पांच बजे बड़े उत्साह से हाथ पैर धोकर, संध्या वंदन करके सबसे पहले पढ़ाई के स्थान पर काबिज रहता. यदि मेरे दूसरे भाई बहन आने में जरा भी देर करते तो मैं उनकी शिकायत कर देने की धमकी भी दे डालता था.
हालाँकि इस धमकी की एक बड़ी वजह यह थी कि मैं हमेशा अपने रुचि का खेल सबसे पहले खेलकर भाग जाता था. मेरे से ठीक बड़े भैया मुझे क्रिकेट खेलने के लिए जब भी कहते मैं हमेशा पहले बैटिंग करने की शर्त रखता था. जब मेरी फील्डिंग अथवा बौलिंग करने की बारी आती तो मैं ‘मन नहीं है खेलने का’ कहकर भाग आता था. इसी तरह उनसे चेस में हार जाने के डर से हमेशा ‘पहले दो बार मुझे जीताएंगें तभी खेलूँगा’ ऐसा शर्त रखता था. दो बार जीतने के बाद ‘मन नहीं है खेलने का’ कहकर भाग आता था. अब ऐसे में मुझे डांट न पड़े इसीलिए उल्टे सबको पढाई में लेट हो रहा है कि धमकी देकर खुद जल्दी से पढाई के लिए बैठ जाता.
मैं जितनी तेजी से पढाई के लिए बैठता, उतनी ही तेजी से पढाई से ऊब भी जाता था. एकाध घंटे के अन्दर ही मै अपने किताब को एक छोर से दूसरे छोर तक पढ़ डालता था. मेरा सिलेबस हमेशा पूर्ण तैयार रहता था, क्योंकि मैं किसी नये क्लास में जाते ही अति उत्साह में चंद दिनों में ही अपनी रुचि वाले सारे सिलेबस तैयार कर डालता था. हालाँकि पढ़ी गयी चीजों को बार बार पढने में मेरा मन नहीं लगता था, लेकिन फिर भी मैं एक विषय को रोज दोहरा जरुर लेता था, लेकिन इसमें मुश्किल से एक घंटे का समय ही लगता था.
छः सवा छः बजे तक मेरी हालत खराब हो जाती. कभी जम्हाई लेता, तो कभो किचन की ओर जाता तो कभी बेडरूम की ओर. किसी तरह से नौ बजते और इस क्रम से मुक्ति पाकर आनंद की प्राप्ति होती थी. इसके बाद खाना खाकर बड़े भैया के साथ टीवी देखने का आनंद लेता था.
एक दिन की बात थी. रोज की तरह छः-सात बजे तक ही मेरा मन पढाई से उचट गया. खूब जम्हाई आ रही थी. मैंने किचन की ओर झाँका. खाना मिलने की कोई सम्भावना ही न थी, क्योंकि माँ बड़े भैया का सख्त निर्देश को वापस से दोहरा देती. मैं बेडरूम में पहुंच कर सो गया.
लगभग सवा नौ बजे बड़े भैया का आगमन हुआ. उनकी कड़कती आवाज मेरे कानो में पहुंची, वे सबके अध्ययन कार्य का ब्यौरा ले रहे थे. मेरी नींद खुल चुकी थी लेकिन मैं बेड से ही अपने बच जाने के लिए भगवान से गुहार लगा रहा था. मुझे आशा थी कि एक दिन की ही तो बात है, एक दिन के लिए तो मुझे छोड़ ही देंगें. लेकिन उनकी आवाज गूंजी —-”कन्हैया कहा है?”
मेरी धड़कन सौ के पार पहुँच चुकी थी, लेकिन मैंने फिर भी सोने का नाटक किया. दीदी ने उन्हें बताया कि वह सो गया है. उन्होंने मुझे जगाकर उपस्थित करने का दूसरा शाही आदेश पारित कर दिया.
मुझे जगाया गया और मैं उनके सामने खड़ा हो गया. वे फुल ड्रेस में अपने कुर्सी पर, अपने दोनों हाथों को एक दूसरे के अंगुली में फंसाकर गोद में रखे हुए, बैठे थे. मेरे सामने आने पर पर उन्होंने दो तीन प्रश्नरुपी गोले मेरे ऊपर फायर किये. पढ़ाई हो गया? सो क्यों रहे थे? बिना खाना खाये क्यों सो गए?
मैंने मन ही मन अनुमान लगाया की शायद आज मैं सजा पाने वाला हूँ. हालाँकि मुझे पिटायी नहीं लगती थी, लेकिन दूसरे भाई बहन की पिटायी से मैं डरा था. मैंने झटके से लपक कर एक स्पेशल डंडा निकाला, जो थोडा छुपाकर किसी खतरे की स्थिति से निपटने के लिए घर में रखा गया था. यह डंडा छोटा, हल्का लेकिन चोट देने में बहुत अधिक सक्षम था. मैंने उस डंडे से एक के बाद एक तीन -चार बार बड़े भैया के गोद में रखे हाथों पर दे डाला.
इसके बाद वहाँ से बगीचे की ओर भाग निकला. बड़े भैया भी मेरे पीछे हो लिए. मैं अपने अनुसार बहुत तेजी से भागा लेकिन सात-आठ सौ मीटर की दूरी पर ही पकड़ा गया. उन्होंने मुझे अपने कंधे पे उठा लिया. दिन में मैं उनके कंधे पे कई बार घूम चूका था लेकिन इस अँधेरी रात में, वो भी बगीचे में, वो भी ऐसी घटना के बाद इस तरह कंधे में बैठा हुआ मैं आने वाले समय की कल्पना ही नहीं कर पा रहा था.
घर पहुँचकर उन्होंने मुझे कंधे से उतार दिया, अपने चोट में दवा लगाया. मुझसे कुछ भी नहीं बोले. माँ से कहकर स्पेशल खीर बनवाया और अपने साथ बैठाकर खाना खिलाया. इस घटना का जिक्र कभी किसी ने मेरे सामने पुनः किया ही नहीं. आज लगभग दो दर्जन से अधिक वर्ष गुजर जाने के बाद भी मेरे लिए ये वाकया आज भी उसी तरह है, जैसे कि कल ही घटित हुई हो.
मैंने बुद्धिजीवियों के मुँह से यह सुना है कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, लेकिन यह एक ऐसी पारिवारिक क्रिया थी, जिसकी कोई प्रतिक्रिया ही नहीं हुयी. इसकी वजह इन कुछ सालों में मुझे अहसास हुआ, लेकिन यह राज सुलझने में दशकों बीत गये.
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